abhivainjana


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Monday 19 December 2011

कर्म ही जीवन है


   सन १९९१. उन्हीं दिनों पिता की मृत्यु से मन बहुत व्यथित था । विद्यालय में वार्षिक उत्सव की तैयारियाँ भी चल थी मुझे भी एक प्रोग्राम देना था,क्या करूँ समझ नही पारही..कुछ तो करना ही था । अचानक मेरे मन में ये भाव  उमड़ पड़े…

कर्म ही जीवन है …कर्म ही सब दुखो का अंत करने वाला


 महा मंत्र है....कर्म ही ईश्वर है.. कर्म ही ईश्वर है..”

  बस फिर क्या था मेरे भाव को आधार मिल गया और एक मूर्तिकार के रुप में मैंने उस भाव को जीवित करने की कोशिश की ।
एक लघु नाटिका के रुप में उसे विद्यालय में वार्षिक उत्सव में प्रस्तुत कर दिया । छोटे छोटे बच्चो ने भी मेरे भावनाओ के पात्र के रुप को बखुबी निभाया  । सभी ने इस नाटिका  को बहुत पसंद  किया था । इस नाटिका में एक दर्द था , पिता का आशीष छिपा था , इसी लिये ये मेरे लिए एक महान कृति बन गई थी  । 

उस दिनों रिकार्डिग की सुविधा न थी। लेकिन आज  इतने वर्ष बाद २६ नवम्बर २०११ मे्  मुझे फिर से इस नाटिका को अपने पुराने विद्यालय के वार्षिक उत्सव में अभिनीत कराने का पुन: अवसर मिला । ये मेरे लिए एक यादगार दिन बन गया था क्योंकि २६ नवम्बर यानी अपने जन्म दिन पर अपने पिता  की स्मृति  को पुन: ताजा करने का अवसर मिला अपनी इस नाटिका द्वारा । सच में ये मेरा सौभाग्य ही था ।

   लीजिए मैं आप सब के सम्मुख ये विडियो रिकार्डिग प्रस्तुत है । रिकार्डिग बहुत अच्छी तो नही हो पाई फिर भी अपनी पुरानी यादें  और अपने पिता का आशीष आप सब से बाँटना चाहती हूँ । उम्मीद करुँगी कि समय का आभाव होने पर भी आप इसे जरुर देखें और मेरा मार्ग दर्शन करें मुझे अच्छा लगेगा…… धन्यवाद..



Friday 9 December 2011

मेरी पहचान


मेरी पहचान
कभी धीरे से, कभी चुपके से
अभी तूफान लिए ,कभी उफान लिए
कभी दर्द का अहसास लिए
कभी आस और विश्वास लिए
मेरी भावनाएँ ,अकसर आकर…
मेरे मन के साथ खेलने लगजाती हैं
तब मैं उन्हें शब्दों के जाल में लपेटे
पन्नों में यूँ ही बिखेर देती हूँ ।
इसे मेरे दिल का गुब्बार कहे
या फिर..
एक सुखद सा अहसास
जो भी हो ……..
वो मेरी कृति बन जाती है
अच्छी है या बुरी,
मेरे जीवन में गति बन आती है
ये कृति, मेरी आत्मा है, मेरे प्राण है
मेरी जिन्दगी है ,मेरी पहचान है..
बस , यही तो मेरी पहचान है…..
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Thursday 1 December 2011

यादें


यादें
जीवन के एकांत पलों में
जब अकेली  हो जाती हूँ
तब यादों के पन्नों में
 बस यूँ ही खो जाती हूँ
न जाने कितनी यादें
बसी है, मन के भीतर
कुछ खामोश कुछ गुमसुम
कुछ चहकती अंदर ही अंदर
कभी दर्द का सैलाब बन
आँखें नम कर देती यादें
कभी मीठी सी दवा बन
मन को सहला जाती यादें
माला सी गूँथ –गूँथ कर
पल-पल जुड़ती जाती यादें
भूलाए नहीं भूला पाती
ये खट्टी-मीठी सी राहें
जीवन के इस ढ़लते पल में
जब सब छूटने सा लगता है
तब याद ही बाकी रह जाती है
सिर्फ याद ही बाकी रह जाती है
******
*****

Friday 25 November 2011

मैं चलती रही, बस चलती रही



जीवन में कई बसंत सी खिली मैं
कई पतझड़ सी झरी मैं
कई बार गिरी 
गिर कर उठी
मन में हौसला लिए
जीवन पथ पर बढ़ी
मैं बढ़ती रही, चलती रही ।

कभी मोम बन पिघलती रही
कभी बाती बन जलती रही
मन में अनंत अहसास संजोए
मैं बढ़ती रही, चलती रही ।

कई बार फूलों की चाह में
काँटों को भी गले लगाया मैंने
और ,कई बार तो
 फूलों ने ही उलझाया मुझको
लेकिन..
हर बार दो अदृश्य हाथों ने संभाला मुझको
मैं बढ़ती रही,चलती रही  ।

पीछे मुड़ कर देखने का वक्त कहाँ..
वक्त  बदलता गया
मान्यताए बदलती रही
अपनी ही अनुभव की गठरी संभाले
मैं बढ़ती रही, चलती रही

कब तक और चलना है ? कौन जाने
शायद चलना ही जीवन है
इसीलिए…
 मैं चलती रही, बस चलती रही  ……..
************************

Monday 14 November 2011

संदेश… नन्हें पथिक को



बहुत साल पहले सन १९९४ में अपने स्कूल के नन्हें मुन्हें बच्चों के लिए ये पंक्तियाँ लिखी थी …… और आज मैं  बाल दिवस के उपलक्ष में सभी नन्हें मुन्हें प्यारे- प्यारे बच्चों को इसे समर्पित कर रही हूँ ।
 संदेश… नन्हें पथिक को

एक से बढ़ कर एक हो तुम
एक में भी अनेक हो तुम
तुम से ही, पहचान हमारी
देख रही, तुम्हें दुनिया सारी ।
ग्यान के नन्हें दीप हो तुम
सूर्य के नन्हें प्रतीक  तुम
वक्त के साथ अब बढ़ना है ,
 उच्च शिखर पर चढ़ना है ।
अंजली भर सपने बटोर रहे
हर सपना सच करना है
दूर बहुत चलना है, पथिक
हैसला और बुलन्द करना है ।
चाहत की तस्वीर हो तुम
भारत की तकदीर हो तुम
बुलंदी के उस पार जाना है
तुम्हें सारा जहाँ जगाना है ।
न होना निराश कभी तुम
न खोना विश्वास कभी तुम
सिर्फ हाथ भर की  ही दूरी है
छूने को सारा आसमां है ।
नित नया निर्माण करो तुम
कण-कण में प्राण भरो तुम
नव चेतन जोत जगाना है
नव भारत तुम्हें बनाना है ।
******

Wednesday 9 November 2011

कुछ साँस बची है जीने को...



कुछ साँस बची है जीने को

कुछ साँस बची है जीने को ,जी भर मुझ को जीने दो
ह्रदय तार के स्पंदन को ,आज मुझे तुम सुनने दो
            टूटे बिखरे सपनों को मैं
सहेज रही थी जीवन भर
आशा की इस बगिया में
दो बूँद बारिश का गिरने दो
कुछ साँस बची है जीने को ,जी भर मुझ को जीने दो
ह्रदय तार के स्पंदन को ,आज मुझे तुम सुनने दो
जीवन सागर के इन लहरों में
उफान भरा, तूफा़न भरा था
थक कर  खामोश हुए अब
             इस खामोशी को सुनने दो
कुछ साँस बची है जीने को,जी भर मुझ को जीने दो
ह्रदय तार के स्पंदन को ,आज मुझे तुम सुनने दो
      मुट्ठी में भरी   रेत सी
    फिसल रही अब जिन्दगी
    क्या खोया क्या पाया मैंने
    आज इसे  बस रहने दो 
कुछ साँस बची है जीने को,जी भर मुझ को जीने दो
ह्रदय तार के स्पंदन को ,आज मुझे तुम सुनने दो
  पत्थर के  निर्मोही जग में
  प्यार का  अहसास  नहीं है
  पल-पल पीया है आँसू मैंने
    आज इसे तुम बहने दो
कुछ साँस बची है जीने को ,जी भर मुझ को जीने दो
ह्रदय तार के स्पंदन को ,आज मुझे तुम सुनने दो
          **************

Sunday 30 October 2011

वक्त


   
१-        वक्त सर पर बैठा
      टुकड़े- टुकड़े कर जिन्दगी ले रहा
      कर्ज़ तो चुकानी ही है
      वक्त से जो ली है
      हमने जिन्दगी उधार में

२-       वक्त की बाँहो में जकड़ी है हर सांस
      हर सांस लेते सोचते हैं
      नजाने कौन सी अंतिम लिखी  है..
                  
३-       पहाड़ो में अब बर्फ पिघलने लगा
     घाटियों में फूल खिलने लगे
     हवाओ में खुशबू फैलने  लगी
     नदियों में पानी बहने लगा
     लेकिन बीते वक्त का दर्द
      महकते फूलों  में आज भी है

                    ४-     पानी के बूँद के गिरने से गूँज सी उठती है
     दबे पाँव चलने से कुछ आहट तो होती  है
     लेकिन मेरे वक्त का एक-एक कतरा गिरा
      मुझे पता भी चला………..
        **********************



Tuesday 25 October 2011

दीया


दीया एक शरीर है, बाती उसकी आत्मा , तेल ,धड़कता हुआ दिल  । जिस दिन तेल खत्म होजाए यानी दिल धड़कना बंद कर दे..उस दिन बाती रुपी आत्मा कहीं विलीन हो जायेगी | बस ये नश्वर दीया रूपी शरीर फिर मिट्टी की मिट्टी…

मैं स्वयं जल कर लोगों को उजाला बाँटती हूँ.. फिर भी जब लोग कहते हैं ‘दीया तले अँधेरा”
मैं समझ नहीं पाती , सच में उन्हें मुझ से सहानुभूति है या फिर मेरी बेबसी का मजाक उड़ाते हैं ….

बेटा माँ से पूछता है ..माँ रात को सूरज क्यों छिप जाता है ?
माँ- बेटा ! जगमगाते दीये की सुन्दर शीतल रौशनी से शर्माता है शायद ,इसीलिए छिप जाता है ।

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Sunday 16 October 2011

खामोशी

खामोशी


एक दिन ..
खामोशी से  ऊब कर मैंने पूछा
तुम इतनी खामोश कैसे रह लेती हो
तुम्हारा कोई संगी साथी नहीं है.?
उसने धीरे से कहा ..हैं..न..
उदासी और अकेलापन..
मैंने समझाते हुए फिर कहा..
तुम इनके साथ सारी जिन्दगी
कैसे गुजार सकती हो..?
बाहर निकलो, और दुनिया देखो
सब तरफ रिश्तों की भीड़ लगी हैं
अहसासों का बाजा़र सजा है
जो चाहो  पा सकती हो……..
कुछ सोच … उसने पूछा
क्या मुझे वहाँ शान्ति और सूकून
भी मिल सकता हैं..???
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Sunday 9 October 2011

हथेली पर जान लेके चलने वाले



हथेली पर जान लेके चलने वाले
तूफ़ां से भला कहाँ डरते हैं
हिम्मत का पतवार थामे वे
अपनी राह खुद बना लेते हैं

बिजली बन कर बाधाओ पर
बेखौफ हो  टूट पड़ते हैं
मन में भर कर विश्वास
अग्नि पथ पर वे बढ़ते हैं

न कोसते किस्मत को वे
बिगड़ी खुद बना लेते हैं
दर्द से भरी हर लकीर को वे
खुद हाथों से मिटा देते हैं

धैर्य की भट्टी में तप कर वे
लोहे को मोम बना देते हैं
चल कर तलवार की धार पर
नया इतिहास रचा लेते हैं

हथेली पर जान लेके चलने वाले
तूफ़ां से भला कहाँ डरते हैं..
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Saturday 1 October 2011

मुझे ये हक दे दो माँ...



मुझे ये हक दे दो  माँ..


तेरी कोख को मैंने है चुना
मुझे निराश न करना माँ
जीने का हक देकर मुझको
उपकार इतना तुम करना माँ

अहसास मुझे है तेरे दुख का
तू जमाने से न कभी डरना
कोई कुछ भी कहता रहे,पर
हिम्मत  कभी न हारना

मुझे पता है मन ही मन
मुझे बहुत चाह्ती हो माँ
फिर क्यों कभी तुम इतनी
बेबस मज़बूर हो जाती ,माँ

मै तो तुम्हारी ही अक्स हूँ
  कैसे मुझे मिटा सकती हो  ?
 मै तो हूँ धड़कन तुम्हारी माँ
  मुझे कैसे भूला सकती हो  ?

कभी  समझना न बोझ मुझे
मैं सहारा बन कर आऊँगी  
छँट जाएँगे दुख के बादल
जब खुशियाँ  भर कर लाऊँगी

मेरे आ जाने से घर में माँ
कोई खर्च न होगा  ज्यादा
तू निश्चित रहकर देखना  
 तेरी अजन्मी बेटी का ये वादा

बचा-कूचा जो तुम  दोगी
वही खुशी-खुशी  खा लूँगी
उतरन पहन सब दीदी के
भाग्य पर मैं इठलाऊँगी

  मुझको भी जीने का हक है न ?
फिर मुझे ये हक दे दो  माँ
ममता के आँचल में अपनी
मुझ को भी तुम ले लो माँ

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